Bhakti Ras Ki Paribhasha, भक्ति रस की परिभाषा और उदाहरण

आज हम जानेगे की Bhakti Ras Ki Paribhasha in Hindi, भक्ति रस की परिभाषा उदाहरण सहित, भक्ति रस किसे कहते है, भक्ति रस क्या है, भक्ति रस के उदाहरण आपको हम इसमें बताने वाले है.

Bhakti Ras Ki Paribhasha-

आज हम आपको भक्ति रस की परिभाषा इन हिंदी | Bhakti ras definition In Hindi | Bhakti ras ka udaharan hindi में बताने वाले है.

भक्ति रस में जब किसी काव्य में भगवान या फिर उसकी कृपा का वर्णन के कारण जब मन में प्रभु से सम्बन्ध व प्रभु को समर्पित करने की अनुभूति या आनंद उपजता है तो इसी आनंद को भक्ति रस कहते है.

भक्ति रस का स्थायी भाव देव रति है जिसे भगवत विषयक रति भी कहते हैं. भक्ति रस को भी भरत मुनि में नौ रसों में स्थान नही दिया है। भक्ति रस श्रृंगार के विस्तृत क्षेत्र में आता है।

Bhakti Ras Ki Paribhasha

भक्ति रस के भाव-

bhakti ras ka udaharan
भक्ति रस के उदाहरण

bhakti ras ka udaharan – भक्ति रस के उदाहरण

एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास
एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास –

उलट नाम जपत जग जाना
वल्मीक भए ब्रह्म समाना

राम सौं बड़ो है कौन मोसो कौन छोटो?
राम सौं खरो है कौन मोसो कौन खोटो?

नैनन्हि की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय।
पलकन्ह की चिक डारि कै, पिय को लिया रिझाया।

अँसुवन जल सिंची-सिंची प्रेम-बेलि बोई
मीरा की लगन लागी, होनी हो सो होई

ना किछु किया न करि सक्या, ना करण जोग सरीर।
जो किछु किया सो हरि किया, ताथै भया कबीर कबीर।

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई॥
जाके सिर है मोरपखा मेरो पति सोई।

वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, कर किरपा अपणायो।
जनम-जनम की पूँजी पाई, जग मैं सबै खोवायो।
खरचै न खुटै, कोई चोर न लूट, दिन-दिन बढ़त सवायो।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तरि आयो।
न ‘मीरा’ के प्रभु गिरधर नागर, हरष-हरष जस गायो।

रामनाम-गति, रामनाम-मति, राम-नाम अनुरागी।
ह्वै गये, हैं जे होहिंगे, तेइ त्रिभुवन गनियत बड़भागी।।

जाको हरि वृढ़ करि अंग कर्यो ।
सोइ सुसील, पुनीत, बेद-बिद विद्या-गुननि भर्यो ।
उतपति पांडु-सुतन की करनी सुनि सतपंथ डर्यो ।
ते त्रैलोक्य-पूज्य, पावन पज सुनि-सुन लोक तर्यो ।।
जो निज धरम बेद बोधित से करत न कछु बिसर्यो।
बिनु अवगुन कृकलासकूप मज्जित कर गहि उधर्यो।

भलेा जो है, पोच जो है, दहिनो जो, बाम रे।
राम-नाम ही सों अंत सब ही को काम रे।।

जमकरि मुँह तरहरि पर्यो, इहि धरहरि चित लाउ।
विषय तृषा परिहरि अजौं, नरहरि के गुन गाउ।।

राम तुम्हारे इसी धाम में
नाम-रूप-गुण-लीला-लाभ।।

जब-जब होइ धरम की हानी।
बाहिं असुर अधम अभिमानी।।
तब-तब प्रभु धरि मनुज सरीरा।
हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।।

प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी
जाकी गंध अंग-अंग समाही।

उलट नाम जपत जग जाना,
वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।

जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी
फूटा कुम्भ, जल जलही समाया, इहे तथ्य कथ्यो ज्ञायनी।

राम जपु, राम जपु, राम जपु, बावरे।
घोर भव-नीर-निधि नाम निज नाव रे।।

जाउँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।
काको नाम पतित पावन जग, केहि अति दीन पियारे।
कौने देव बराइ बिरद हित हटि-हठि अधम उधारे।
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब माया विवस बिचारे।
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे।

राम-नाम छाड़ि जो भरोसो करै और रे।
तुलसी परोसो त्यागि माँगै कूर कौन रे।।

ना किछु किया न करि सक्या, ना करण जोग सरीर।
जो किछु किया सो हरि किया, ताथै भया कबीर कबीर|

यह घर है प्रेम का खाला का घर नाहीं
सीस उतारी भुई धरो फिर पैठो घर माहि।

राम तुम्हारे इसी धाम में
नाम-रूप-गुण-लीला-लाभ।।

दुलहिनि गावहु मंगलचार
मोरे घर आए हो राजा राम भरतार ।।
तन रत करि मैं मन रत करिहौं पंच तत्व बाराती।
रामदेव मोरे पाहुन आए मैं जोवन मैमाती।।

यह घर है प्रेम का खाला का घर नाहीं
सीस उतारी भुई धरो फिर पैठो घर माहि।

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निकर्ष-

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