Natak Ki Paribhasha, नाटक की परिभाषा

आज हम जानेंगे Natak Ki Paribhasha | नाटक की परिभाषा | Natak defination In Hindi | नाटक का अर्थ | Natak Ke Udaharan | प्रमुख नाटक और नाटककार बारे में आपको बताने वाले है.

नाटक का अर्थ-

नाटक “नट” शब्द से निर्मित है जिसका आशय हैं— सात्त्विक भावों का अभिनय।
नाटक दृश्य काव्य के अंतर्गत आता है । इसका प्रदर्शन रंगमंच पर होता हैं। भारतेंदु हरिशचन्द्र ने नाटक के बारे में लिखा है– “नाटक शब्द का अर्थ नट लोगों की क्रिया हैं। दृश्य-काव्य की संज्ञा-रूपक है।

Natak Ki Paribhasha, नाटक की परिभाषा –

आज हम जानेंगे की Natak Kya Hai | नाटक किसे कहते है | Definition of Natak In Hindi के बारे में बताने वाले है –

नाटक एक अभिनय परक एवं दृश्य काव्य विधा है जिसमें संपूर्ण मानव जीवन का रोचक एवं कुतूहलपूर्ण वर्णन होता है । वास्तव में नाटक के मूल में अनुकरण या नकल का भाव है वह ही नाटक कहलाता है.

  • नाटक मे फैले हुए जीवन व्यापार को ऐसी व्यवस्था के साथ रखते है कि अधिक से अधिक प्रभाव उत्पन्न हो सके। नाटक का प्रमुख उपादान है उसकी रंगमंचीयता।
  • हिन्दी साहित्य मे नाटकों का विकास वास्तव मे आधुनिक काल मे भारतेंदु युग मे हुआ।
नाटक की परिभाषा
Natak Ki Paribhasha

प्रथम नाटक कौनसा है –

-> हिन्दी का पहला नाटक ‘नहुष’ है जिसका रचनाकाल 1857 ई. है और लेखक “गोपाल चन्द्र गिरधरदास” हैं।

नाटक का विकास कैसे हुआ –

1.-भारतेन्दु युगीन नाटक (1850 से 1900 ई)-

हिन्दी रचनाओं का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से होता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी साहित्य में आधुनिकता को बढ़ावा देने वाले लेखक हैं।

भारतेन्दु और उनके समकालीन लेखकों को देश की कठिन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति पर गहरा दुःख हुआ और इस दुःख की जड़ थी देशभक्ति।

इसलिए उनके साहित्य में समाज को जागृत करने की चाहत है और देशभक्ति की भावना एक नये विषय के रूप में उभरती है।

समाज को जागृत करने में नाटक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

भारतेंदु जी ने नाटकों के माध्यम से लोगों को निराशा से आशा की ओर ले जाने का काम किया।

2.-द्विवेदी युगीन नाटक 1901 से 1920 तक-

महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली गद्य के विकास में अमूल्य योगदान दिया है।

इस काल में विभिन्न भाषाओं के नाटकों का बड़े पैमाने पर अनुवाद किया गया। बांग्ला, अंग्रेजी तथा संस्कृत नाटकों के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुए.

3.-प्रसाद युगीन नाटक 1921 से 1936 तक-

जयशंकर प्रसाद जी एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में आये जिन्होंने नाटकीय सृजन में व्याप्त ठहराव को समाप्त किया।

जयशंकर प्रसाद जी की रचनाओं में सांस्कृतिक चेतना का विकसित होता स्वरूप देखा जा सकता है।

इसमें इतिहास और कल्पना के संगम से वर्तमान को नई दिशा देने का प्रयास महत्वपूर्ण है। एक अर्थ में, इस अवधि के दौरान ऐतिहासिक कार्य लोकप्रिय थे।

4.-1936 से अब तक प्रसादोत्तर युग का नाटक-

प्रसादोत्तर युग की रचनाओं में यथार्थ का स्वर प्रमुख है। स्वतंत्रता प्राप्ति का लक्ष्य नाटकों में पुनरुद्धार एवं पुनर्जन्म के रूप में व्यक्त किया गया है।

प्रसादोत्तर काल में आदर्शवादी प्रवृत्तियों का संगम इस काल को एक नई दिशा में ले जाता है।

प्रसाद योगी की रचनाओं में सांस्कृतिक जागरूकता को समकालीन जीवनशैली में एक अंतराल के रूप में देखा गया।

नाटक के प्रमुख तत्त्व –

नाटक के मुख्यतः सात तत्त्व माने गए हैं, जो निम्नलिखित हैं।

  • कथावस्तु
  • पात्र और चरित्र-चित्रण
  • कथोपकथन या संवाद
  • देशकाल तथा वातावरण चित्रण एवं संकलनत्रय
  • उद्देश्य
  • शैली
  • अभिनय तथा रंगमंच।

1.कथानक –

कथानक का अर्थ है कृति में प्रस्तुत घटनाओं का चक्र अर्थात कृति में घटित होने वाली घटनाएँ।

घटनाओं का यह चक्र व्यापक है और इसके दायरे में कार्य की वृहत घटनाओं के साथ-साथ पात्रों के व्यवहार और विचार भी शामिल हैं।

2.पात्र या चरित्र-चित्रण –

यद्यपि नाटक में पात्रों की संख्या बहुत अधिक होती है, तथापि सामान्यतः एक या दो पात्र ही मुख्य होते हैं।

किसी भी विषयगत नाटक में एक मुख्य पुरुष पात्र होता है जिसे हम ‘नायक’ कहते हैं और इसके अलावा मुख्य या मुख्य महिला पात्र को ‘नायिका’ कहा जाता है।

किसी भी चरित्र-प्रधान नाटक में नाटक का कथानक एक ही पात्र के इर्द-गिर्द घूमता है।

3.समयावधि या पर्यावरण :

पर्यावरण का अर्थ है समयावधि। किसी भी रचना में उल्लिखित घटनाएँ किसी न किसी स्थान एवं समय से सम्बन्धित होती हैं।

नाटक में यथार्थता, सजीवता एवं स्वाभाविकता लाने के लिए नाटककार को घटनाओं का यथार्थ चित्रण करना आवश्यक है।

4.संवाद एवं भाषा –

नाटक में विभिन्न पात्र एक दूसरे से जो वार्तालाप करते हैं उसे संवाद कहते हैं।

इन संवादों के माध्यम से नाटक की कहानी आगे बढ़ती है और नाटक के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है। कार्य में एकालाप भी हैं।

आत्मभाषण में पात्र अकेले बोलता है। इनके माध्यम से नाटककार ताश के पत्तों की मानसिक स्थिति का वर्णन करता है।

5.शैली:-

रंगमंच की दृष्टि से नाटक की कई शैलियाँ हैं, जैसे शास्त्रीय भारतीय नाटकीय शैली और पश्चिमी नाटकीय शैली।

इसके अलावा लोकनाट्य की विभिन्न शैलियाँ भी हैं जैसे-रामलीला, रासलीला, महाभारत आदि।

6.अभिनेता:-

अधिकांश नाटककार केवल मंच पर प्रदर्शन के लिए ही नाटकों की रचना करते हैं। कोई भी नाटक मंच पर प्रदर्शित होने के बाद ही पूरा होता है। वह व्यक्ति जिसके निर्देशन में नाटक मंच पर प्रस्तुत किया जाता है, निर्देशक कहलाता है।

निर्देशक नाट्य टीमों और अभिनेताओं की मदद से नाटक को दर्शकों के सामने प्रस्तुत करता है।

7. उद्देश्य –

कोई भी नाटककार अपने काम के माध्यम से हमें एक गंभीर उद्देश्य प्रस्तुत करता है।
कई नाटककारों ने अपने कार्यों के उद्देश्य पर चर्चा की है।

उदाहरण के लिए, प्रसाद जी ने ‘चन्द्रगुप्त’, ‘विशाख’ आदि ऐतिहासिक कृतियों को लिखने के उद्देश्य पर प्रकाश डाला है।

natak ke udaharan

natak ke udaharan- प्रमुख नाटक और नाटककार

क्रमनाटकनाटककार
1.रामायण महानाटकप्राणचंद चौहान
2.आनंद रघुनंदनमहाराज विश्वनाथ सिंह
3.नहुषगोपालचंद्र गिरिधर दास
4.विद्यासुंदर, रत्नावली, पाखण्ड विडंबन, धनंजय विजय, कर्पूर मंजरी, भारत-जननी, मुद्राराक्षस, दुर्लभ बंधु (उपर्युक्त सभी अनूदित); वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, सत्यहरिश्चंद्र, श्रीचंद्रावली, विषस्य विषमौषधम, भारत-दुर्दशा, नीलदेवी, अँधेर नगरी, सती प्रताप, प्रेम योगिनी (मौलिक)भारतेंदु हरिश्चंद्र
5.कृष्ण-सुदामा नाटकशिवनंदन सहाय
6.संयोगिता स्वयंवर, प्रह्लाद-चरित्र, रणधीर प्रेममोहिनी, तप्त संवरणलाला श्रीनिवासदास
7.अमरसिंह राठौर, बूढ़े मुँह मुँहासे (प्रहसन)राधाचरण गोस्वामी
8.मयंक मंजरी, प्रणयिनी-परिणयकिशोरीलाल गोस्वामी
9.भारत-दुर्दशा, कलिकौतुक रुपक, संगीत शाकुंतल, हठी हम्मीरप्रताप नारायण मिश्र
10.कलिराज की सभा, रेल का विकट खेल, दमयंती स्वयंवर, जैसा काम वैसा परिणाम (प्रहसन), नई रोशनी का विष, वेणुसंहार

निकर्ष-

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